महाराजा छत्रसाल बुन्देलखण्ड विश्वविधालय छतरपुर (मध्यप्रदेश)
B. A. (Second Year) Examination, 2020-21
(For Regular Students)
Paper : Second
GEOGRAPHY
1. सही उत्तर का चयन कीजिए :-
(i) निम्न में से कौन विश्व का सबसे बड़ा कहवा उत्पादक देश है?
(a) भारत
(b) यू०एस०ए०
(c) ब्राजील✅
(d) कोलम्बिया
(ii) बाम्बे हाई सम्बन्धित है -
(a) सोना उत्खनन
(b) पेट्रोलियम ✅
(c) कोयला
(d) बाक्साइट
(iii)भारत में प्रथम पंचवर्षीय योजना किस वर्ष लागू हुई ;-
(a) 1951 ✅
(b) 1953
(c) 1955
(d) 1956
(iv) संयुक्त राज्य अमेरिका का पिट्सबर्ग निम्न में से किस उद्योग से सम्बन्धित है?
(a) सूती-वस्त्र
(b) उर्वरक
(c) सीमेंट
(d) लोहा-इस्पात✅
(v) पनामा नहर जोड़ती है
(a) भूमध्य सागर से लाल सागर को
(b) काला सागर को लाल सागर से
(c) अटलांटिक महासागर को प्रशांत महासागर से ✅
(d) इनमें से कोई नहीं
Q.2. आर्थिक भूगोल को परिभाषित कीजिए।
उत्तर :- आर्थिक भूगोल मानव भूगोल की एक महत्वपूर्ण शाखा है। इसमें मनुष्य के आर्थिक क्रिया-कलापों (उसके भरण-पोषण, भोजन, वस्त्र, आवास तथा अन्य आरामदायक व विलासिता की आवश्यकता पूर्ति से सम्बन्धित) तथा आर्थिक विकास के स्तर का अध्ययन किया जाता है। प्राकृतिक, जैविक, मानवीय एवं आर्थिक तत्वों और क्रियाओं में एक स्थान | से दूसरे स्थान पर भिन्नता होती है, अत: इनका पारस्परिक सम्बन्ध भी भिन्न होता है, जिसके कारण मानव की आर्थिक क्रियाओं एवं आर्थिक विकास के स्तर में भी भिन्नता प्राप्त होती है, | आर्थिक भूगोल के अन्तर्गत इन्हीं क्षेत्रीय आर्थिक भिन्नताओं का अध्ययन किया जाता है।
Q 3. लौह अयस्क के प्रकार बताइये।
उत्तर :-
1.हेमेटाइट :
इसको प्राकृतिक अयस्क' (natural ore) भी कहा जाता है। इसका रासायनिक सूत्र- Feo, होता है। इसमें 60% से 65% तक पाया जाता है। इसकी स्पेसिफिक ग्रेविटी 4.9 से 5.3 होती है। हेमेटाइट अधिकतर बिहार(Bihar), मैसूट, ओडिeIT व मध्य प्रदेश में पाया जाता है। और इसके अलावा यह चीन व अमेरिका में भी मिलता है।
2.मैगनेटाइट :
इसका टासायनिक सूत्र- Fe204 होता है। इसमें 70% से 75% तक लोहा पाया जाता है। इसमें चुम्बकीय (magentic) गुण होते हैं। और यह अधिकतर भारत, कनाडा व अमेरिका में मिलता है।
3.लिमोनाइट :
इसमें 60% तक लोहा (iron) पाया जाता है। और इसमें 14.5% पानी भी मिलता है। यह अधिकतर फ्रांस, बेल्जियम, जर्मनी व दक्षिणी अमेरिका में मिलता है।
4.सिडेटाइट :
इसका रासायनिक सूत्र- Fecos होता है। इसमें 40% से 43% तक लोहा (iron) पाया जाता है। इसकी स्पेसिफिक ग्रेविटी 3.85 होती है। यह अधिकतर इंग्लैण्ड, ऑस्ट्रेलिया व जर्मनी में मिलता है।
5.पाइराइट :
इसका रासायनिक सूत्र- Fess होता है। इसमें 43% तक लोहा पाया जाता है। और इसमें गन्धक (sulfur) की भी मात्रा होती है। इसे शुद्ध करने के लिए गन्धक जलाई जाती है। इसमें गन्धक (sulfur) होने के कारण यह भंगुर होता है। इसलिए इससे लोहा प्राप्त करना मुश्किल होता है।
Q. 4. प्रादेशिक विकास का अर्थ समझाइये।
उत्तर :- सामान्यतः नियोजन के दो उपगमन होते हैं: खंडीय (Sectoral) नियोजन और प्रादेशिक नियोजन। खंडीय नियोजन का अर्थ है- अर्थव्यवस्था के विभिन्न सेक्टरों, जैसे- कृषि, सिंचाई, विनिर्माण, ऊर्जा, निर्माण, परिवहन, संचार, सामाजिक अवसंरचना और सेवाओं के विकास के लिए कार्यक्रम बनाना तथा उनको लागू करना।
किसी भी देश में सभी क्षेत्रों में एक समान आर्थिक विकास नहीं हुआ है। कुछ क्षेत्र बहुत अधिक विकसित हैं तो कुछ पिछड़े हुए हैं। विकास का यह असमान प्रतिरूप (Pattern) सुनिश्चित करता है कि नियोजक एक स्थानिक परिप्रेक्ष्य अपनाएँ तथा विकास में प्रादेशिक असंतुलन कम करने के लिए योजना बनाएँ। इस प्रकार के नियोजन को प्रादेशिक नियोजन कहा जाता है।
Q.5.उद्योगों के स्थानीयकरण के कारक लिखिए। (अथवा )
उत्तर :- 1. जलवायु एवं अन्य प्राकृतिक कारक- यदि उद्योग की किसी विशेष प्रकार की जलवायु एवं अन्य प्राकृतिक कारकों (जैसे-भू-रचना, मिट्टी, आर्द्रता, पानी. आदि) की आवश्यकता हो तो ऐसे उद्योग की स्थापना उसी क्षेत्र में होती है जहाँ वैसी जलवाय एवं प्राकतिक कारक उपलब्ध हों उदाहरण के लिए बंगलौर एवं ऊटकमण्ड में वायमान एवं फोटोग्राफी उद्योग की स्थापना का मुख्य कारण वहाँ इन उद्योगों के लिए आवश्यक प्रदूषणरहित जलवायु का पाया जाना है इसी प्रकार जमशेदपुर में लोहा एवं इस्पात उद्योग की स्थापना के लिए पर्याप्त मात्रा में पानी की उपलब्धि (सुवर्ण रेखा नदी) एक महत्वपूर्ण कारण है।
2.कच्चे माल की उपलब्धता- किसी उद्योग को उस क्षेत्र में स्थापित किया जाता है जहाँ उसके लिए आवश्यक कच्चा माल नियमित रूप से, पर्याप्त मात्रा में तथा न्यूनतम लागत पर प्राप्त हो सके। उत्पादन की प्रक्रिया में भार खोने वाले (Weight losing) कच्चे माल का प्रयोग करने वाले अथवा कच्चे माल की प्राथमिक अवस्था में प्रयोग में लाए जाने वाले उद्योग कच्चे माल के स्रोतों के निकट ही स्थापित किए जाते हैं। उदाहरण के लिए चीनी मिलें गन्ना उत्पादक क्षेत्रों में ही केन्द्रीयकृत हैं क्योंकि चीनी के उत्पादन में दस गुने अधिक भार वाले कच्चे माल (गन्ना) का प्रयोग करना पड़ता है।
3. बाजार की निकटता-उद्योग के उत्पादनों को बेचने के लिए बाजारों में ले जाना होता है। बाजार जितना निकट होगा उतनी ही आसानी से ग्राहकों से सम्पर्क स्थापित हो सकेगा तथा विक्रय एवं वितरण की लागतें कम रहेंगी। अत: बाजार की निकटता भी स्थान-निर्धारण को प्रभावित करती है।
4. श्रम-आपूर्ति- किसी उद्योग को यदि किसी विशेष प्रकार की कुशलता वाले श्रमिकों, कारीगरों की आवश्यकता होती है तो वह उद्योग उस स्थान पर स्थापित किया जाता है जहाँ आवश्यक प्रकार के श्रमिक पर्याप्त संख्या में सहजता के साथ उपलब्ध हैं। आधुनिक युग में श्रम की अपेक्षा पूँजी-प्रधान (Capital Intensive) उद्योगों का प्रचलन बढ़ने तथा यातायात के साधनों की उन्नति से श्रमिकों की गतिशीलता (Mobility) में पर्याप्त वृद्धि हुई है, जिससे श्रम की उपलब्धता के महत्व में कमी आई है। फिर भी सस्ते पर्याप्त मात्रा में श्रमिकों की उपलब्धि स्थानीयकरण का एक महत्वपूर्ण कारण है।
5. शक्ति की उपलब्धता- किसी भी उद्योग को चलाने के लिए जिस प्रकार की शक्ति की आवश्यकता हो उसकी उपलब्धि भी स्थानीयकरण को प्रभावित करती है। उदाहरण के लिए लोहा एवं इस्पात उद्योग की स्थापना अच्छे प्रकार के कोयले के क्षेत्रों में ही की जाती है क्योंकि एक टन इस्पात के उत्पादन में अनुमानत: 2 टन कोयले का प्रयोग शक्ति के माध्यम के रूप में किया जाता है।
Q. 6.वैश्वीकरण से आप क्या समझते हैं?(अथवा )
उत्तर :- वैश्वीकरण से आशय विश्व के विभिन्न समाजों और अर्थव्यवस्थाओं के एकीकरण से है। यह उत्पादों, विचारों, दृष्टिकोणों, विभिन्न सांस्कृतिक पहलुओं आदि के आपसी विनिमय के परिणाम से उत्पन्न विचार है। इसके कारण विश्व में विभिन्न लोगों, क्षेत्रों एवं देशों के मध्य अन्तःनिर्भरता में वृद्धि होती है। वहीं पश्चिमीकरण का आशय ऐसी प्रक्रिया से है, जिसके अंतर्गत समाज के विभिन्न पहलुओं यथा- भाषा, रहन-सहन, उद्योग, प्रौद्योगिकी, आर्थिक गतिविधि, राजनीति आदि में पश्चिमी विशेषताओं का समावेश होने लगता है। वैश्वीकरण कोई नई अवधारणा नहीं है, बल्कि यह एक प्राचीन अवधारणा है। इसका बीज पाश्चात्य पूंजीवाद व उपनिवेशवाद में देखा जा सकता है और जिसने अन्य देशों के संसाधनों पर नियंत्रण के रूप में अपनद प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। इससे पूर्व भी प्राचीन काल में प्रसिद्ध रेशम मार्गद्वारा भी भारतीय उपमहाद्वीप समेत चीन, फारस, यूरोप और अरब देशों के साथ व्यापार-वाणिज्य के माध्यम से सभ्यताओं के बीच अंतक्रिया बढ़ी। समय के साथ विभिन्न धर्मों जैसे- इस्लाम,बौद्ध और हिन्दू धर्म का यूटोपव अफ्रीका के देशों में प्रचार-प्रसार भी वैश्वीकरण का उदाहरण है। ब्रिटेन या अन्य यूरोपीय देशों द्वारा उपनिवेशों में प्रचलित संस्कृति, भाषा, दर्शन आदि को अपने देशों में पहुंचाया गया, जिससे वैश्वीकरण को बढ़ावा मिला। इस संदर्भ मे औद्योगिकरण के पूर्व पश्चिमी देशों में भारतीय सूती वस्त्रों की व्यापक मांग को देखा जा सकता है।
Q.7. आर्थिक भूगोल के विषय क्षेत्र की व्याख्या कीजिए।
उत्तर :- आर्थिक भूगोल का अर्थ :
आर्थिक भूगोल मानव भूगोल की एक महत्वपूर्ण शाखा है। इसमें मनुष्य के आर्थिक क्रिया-कलापों (उसके भरण-पोषण, भोजन, वस्त्र, आवास तथा अन्य आरामदायक व विलासिता की आवश्यकता पूर्ति से सम्बन्धित) तथा आर्थिक विकास के स्तर का अध्ययन किया जाता है। प्राकृतिक, जैविक, मानवीय एवं आर्थिक तत्वों और क्रियाओं में एक स्थान से दूसरे स्थान पर भिन्नता होती है, अत: इनका पारस्परिक सम्बन्ध भी भिन्न होता है, जिसके कारण मानव की आर्थिक क्रियाओं एवं आर्थिक विकास के स्तर में भी भिन्नता प्राप्त होती है, आर्थिक भूगोल के अन्तर्गत इन्हीं क्षेत्रीय आर्थिक भिन्नताओं का अध्ययन किया जाता है।
आर्थिक भूगोल की कुछ विद्वानों ने निम्नलिखित प्रमुख परिभाषायें की हैं
प्रो. ब्राउन के अनुसार-“आर्थिक भूगोल, भूगोल की वह शाखा है जिसमें प्राकृतिक वातावरण (जड़ और चेतन) के मनुष्य की आर्थिक क्रियाओं पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन होता है।"
आर्थिक भूगोल का विषय-क्षेत्र
आर्थिक भूगोल का विषय-क्षेत्र काफी विस्तृत है, मनुष्य के आर्थिक कार्यों तथा उन पर प्रभाव डालने वाली सभी प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों का अध्ययन इसके अन्तर्गत आता है। इस प्रकार वस्तुओं के उत्पादन, वितरण एवं उपभोग के सभी कार्य आर्थिक भूगोल के विषय हैं। वास्तव में आर्थिक भूगोल में निम्न प्रश्नों का उत्तर देने की चेष्टा की जाती है -
(i) भूतल पर किन स्थानों में आर्थिक क्रियाएँ की जा सकती हैं?
(ii) आर्थिक क्रियाएँ कहाँ की जाती हैं ?
(iii) ये आर्थिक क्रियाएँ क्यों की जाती हैं ?
(iv) ये आर्थिक क्रियाएँ कब की जाती हैं ? तथा
(v) आर्थिक क्रियाएँ कैसे की जाती हैं?
जैसा कि आर्थिक भूगोल की परिभाषाओं से स्पष्ट है कि आर्थिक भूगोल मनुष्य की आर्थिक क्रियाओं तथा उनका प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों के सम्बन्धों का अध्ययन करने वाला शास्त्र है। अत: इसके क्षेत्र के अन्तर्गत निम्नलिखित विषयों का समावेश होता है-
1. प्राकृतिक परिस्थितियाँ- इसके अन्तर्गत निम्नलिखित बातें आती हैं
(a) जलवायु-(i) तापक्रम की दशायें, (ii) वर्षा की मात्रा एवं हिमपात, (iii) वायु संधार एवं वायु विक्षोभ। (b) भू-आकार एवं प्रवाह प्रणाली-(i) चट्टानों के प्रकार एवं निर्माण, (ii) भूतल के स्वरूप, (ii) जल प्रवाह का रूप एवं व्यवस्था।
(c) पृथ्वीगत साधन- (i) जल (ii) प्राकृतिक वनस्पति (iii) जीव जन्तु (iv)मिट्टियाँ (v) खनिज पदार्थ।
2. सांस्कृतिक परिस्थितियाँ- इसके अन्तर्गत निम्नलिखित बातें शामिल होती हैं:
(a) जनसंख्या-(i) जनसंख्या का वितरण (ii) जनसंख्या की समस्यायें।
(b) आवास एवं नगर-(i) आवास का प्रारूप (ii) नगर एवं उनका विकास।
(c) आर्थिक उत्पादन की दशायें-(i) कृषि के प्रकार एवं पद्धतियाँ (ii) निर्माण व्यवसायों के रूप एवं प्रकार (iii) शोषणात्मक व्यवसायों के रूप।
(d) यातायात और संचार की दशायें-(i) यातायात के साधन और उनका विकास (ii) संचार व्यवस्था।
3. आर्थिक क्रियायें-इसके अन्तर्गत निम्नलिखित बातें आती हैं-
(i) आखेट और मत्स्य उत्पादन, (ii) पशुपालन, (iii) कृषि व्यवसाय, (iv) खनिज उद्योग, (v) वस्तु निर्माण और (vi) व्यापार।
इस प्रकार आर्थिक भूगोल का विषय-क्षेत्र अत्यन्त ही व्य पक है, क्योंकि इसके अन्तर्गत मानव की प्रत्येक तरह की आर्थिक क्रियाओं अर्थात् सभी प्रकार के प्राकृतिक एवं मानव निर्मित संसाधन, कृषि कार्य, खनिज, उद्योग, परिवहन, वाणिज्य एवं विविध प्रकार की प्रत्यक्ष सेवाओं (जो उत्पादन-क्रियाओं में सहायक होती है) आदि का अध्ययन पृथ्वी पर प्राप्त क्षेत्रीय विभिन्नताओं की व्याख्या करने की दृष्टि से किया जाता है। डॉ. चतुर्भुज मामोरिया ने आर्थिक भगोल के उद्देश्य को बतलाते हुए लिखा है-“यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि किसी भी प्रदेश में आर्थिक क्रियाओं के विभिन्न पक्षों के अन्तर्सम्बन्धों से आर्थिक भू-दृश्यों का जन्म होता है। इसका विश्लेषण और व्याख्या करना ही आर्थिक भूगोल का परम लक्ष्य है।"
Q.8.भारत में गैर-परम्परागत ऊर्जा संसाधनों के विकास का वर्णन कीजिये।
उत्तर :- ऊर्जा के गैर-परम्परागत स्त्रोतों से आशय ऊर्जा के उन आधुनिक स्त्रोतों से है जिसे आधुनिक तकनीक के माध्यम से सतत् रूप से प्रदूषण रहित ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है। विश्व में परम्परागत ऊर्जा स्त्रोतों में कोयला, प्राकृतिक गैस तथा पैट्रोलियम सर्वप्रमुख हैं। विश्व में इनके संचित भण्डार सीमित होने के कारण ये ऊर्जा के समाप्त होने वाले संसाधन हैं. साथ ही इनके उपयोग से वायु-प्रदूषण जैसी समस्यायें उत्पन्न होती हैं। यही कारण है कि विश्व में गैर-परम्परागत या पुर्नपयोगी ऊर्जा संसाधनों के विकास पर बल दिया जा रहा है।
वर्तमान में निम्नलिखित गैर-परम्परागत ऊर्जा स्त्रोतों का उपयोग व विकास मानव द्वारा किया जा रहा है
1. सौर ऊर्जा (Solar Energy)-सूर्य से प्राप्त असीम होती है। विभिन्न स्त्रोतों से मानव ने जितनी ऊर्जा का उपयोग पिछले दस लाख वर्षों में किया है, उतनी ऊर्जा सूर्य से पक्षी पर एक दिन में प्राप्त हो जाती है। विश्व में सूर्यातप से ऊर्जा उत्पादित करने के लिये सारफाटोबाल्टिक विधि का प्रयोग किया जा रहा है। इसके अलावा सौर वाटर हीटर सौर कुकर तथा सौर ड्रायर जैसे उपकरणों का उपयोग भी सौर ऊर्जा प्राप्त करने के लिये बढ रहा है। यही नहीं, इजराइल जैसे देशों में सौर ऊर्जा प्राप्त करने के लिये जलीय भागों की सतह पर नमक की परत बिछाकर सौर ताप का संग्रह सफलतापूर्वक किया जा रहा है।
सौर ऊर्जा के विकास की अभी असीम सम्भावनाएँ हैं तथा मानव इस ऊर्जा का बहुत कम भाग ही अभी तक विकसित कर पाया है। इक्कीसवीं शताब्दी के मध्य में जब भगर्भ का अधिकांश कोयला, पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैस पूर्णतया समाप्त हो जायेंगे तो विश्व की ऊर्जा माँग का अधिकांश भाग और ऊर्जा से ही पूरा हो सकेगा। घरों में विद्युत खेतों में सिंचाई तथा दूरसंचार जैसे क्षेत्रों में सौर ऊर्जा का उपयोग दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। वर्तमान में सौर ऊर्जा के उत्पादन से सम्बन्धित विभिन्न सामग्रियों का महंगा होना और ऊर्जा के विकास में अवरोध है। सूर्यातप का असमान वितरण तथा वर्ष पर्यन्त प्राप्त होने की अनिश्चितता सौर ऊर्जा उत्पादन की अन्य बाधाएँ हैं।
भारत में राजस्थान के जोधपुर जिले के मथानियाँ गाँव तथा उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले के कल्याणपुर गाँव तथा मऊ जिले के सरायसादी स्थान पर सौर विद्युतगृह की स्थापना की जा चुकी है।
2. ज्वारीय ऊर्जा (Tidal Energy)-गैर-परम्परागत ऊर्जा स्रोतों में ज्वारीय ऊर्जा एक महत्वपूर्ण ऊर्जा स्रोत है। यह ऊर्जा सागरीय जल में उत्पन्न ज्वार-भाटे से उत्पन्न की जाती है। इस ऊर्जा का उत्पादन प्राय: ज्वारनदमुख अथवा सँकरी सागरीय खाड़ियों पर किया जाता है। ज्वार के समय सागरीय जल खाड़ी में भर जाता है। इस जल को ऊँचा जलाशय निर्मित कर संग्रह कर लिया जाता है। जहाँ से इस जल को टरबाइन पर तीव्र गति से डालकर विद्युत उत्पन्न की जाती है।
विश्व का सबसे पहला ज्वारीय विद्युतगृह सन् 1966 में फ्रांस मे रेन्स नदी के मुहाने पर स्थापित किया गया। वर्तमान में संयुक्त राज्य अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन तथा अर्जेन्टाइना देश ज्वारीय ऊर्जा उत्पादित करने वाले प्रमुख देशों में सम्मिलित हैं। भारत में 900 मेगावाट उत्पादन क्षमता की कच्छ ज्वारीय विद्युत परियोजना गुजरात के कच्छ तटीय क्षेत्र में कार्यरत है।
3. भूतापीय ऊर्जा (Geothermal Energy)-भूगर्भ में मैगमा या रेडियोधर्मी तत्वों के विखण्डन से जब वहाँ का तापक्रम अधिक बढ़ जाता है तो भूसतह के ठीक नीचे स्थित जाटानें भी गर्म हो जाती हैं। इन चट्टानों द्वारा जो ऊर्जा निकलती है, उसे भतापीय ऊर्जा कहा जाता है। इस ऊर्जा को विद्युत में परिवर्तित कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से ले जाया जा सकता है। इस ऊर्जा में पहले जल को गर्म कर वाष्प में बदला जाता है तथा बाद जाया मी वाष्प की सहायता से टरबाइन चलाकर विद्युत उत्पादित की जाती है।
भतापीय ऊर्जा सस्ता, स्वच्छ तथा न समाप्त होने वाला ऊर्जा स्रोत है। विश्व में सबस पडले भतापीय ऊर्जा से विद्युत उत्पादन करने का कार्य इटली के लारडरलो नामक स्थान पर प्रारम्भ हुआ। भारत के जम्मू-कश्मीर व महाराष्ट्र राज्यों में भूतापीय ऊर्जा उत्पादन प्राप्त करने के प्रयास किये जा रहे हैं।
4. बायोगैस ऊर्जा (Biogas Energy)-बायोगैस का निर्माण पशुओं के गोबर, कूड़े-करकट, मल मूत्रादि की सहायता से किण्वन विधि द्वारा किया जाता है। बायोगैस एक रंगहीन तथा ज्वलनशील गैस होती है जिसमें लगभग 60% मीथेन तथा 30% कार्बन डाईऑक्साइड गैस होती हैं। इस गैस का उपयोग भोजन बनाने, प्रकाश प्राप्त करने तथा अन्तर्दहन इन्जनों के संचालन में किया जाता है। लैटिन अमेरिकी देशों, अफ्रीका तथा सुदूरपूर्व के देशों में बायोगैस ऊर्जा का उत्पादन प्रमुख रूप से किया जा रहा है। भारत में मार्च 1992 तक लगभग 16 लाख बायोगैस प्लांट स्थापित किये जा चुके थे तथा वर्तमान में इनकी संख्या तेजी से बढ़ रही है। बायोगैस ऊर्जा उत्पादन में बायोगैस प्राप्त करने के अलावा खेतों के लिये खाद भी प्राप्त होती है।
5. पवन शक्ति या ऊर्जा (Wind Enegry)-पवन शक्ति (Wind Power) से मानव प्रारम्भ से ही परिचित रहा है। पवन अर्थात् वायु की तेज गति से शक्ति प्राप्त करने के लिए ही मानव ने यंत्र का निर्माण सर्वप्रथम किया था। इस शक्ति ने उद्योग और परिवहन को प्रोत्साहन प्रदान किया। नाव और जहाज वायु शक्ति से चलाये गये। विश्व के विभिन्न देशों को एक दूसरे के निकट लाने में वायु शक्ति की भूमिका को भुलाया नहीं जा सकता। सन् 1800 तक विश्व में वायु शक्ति से चालित जलयानों की संख्या बहुत अधिक थी। इसके बाद क्रमश: कोयले और तेल के प्रयोग ने जलयानों के संचालन में इस शक्ति के प्रयोग को समाप्त करा दिया; परन्तु नदियों में सर्वत्र वायु के द्वारा अधिकांश नौकाएँ चलती रहीं। भारत और चीन की प्राय: सभी नदियों में भारवाही 90% नौकाएँ पाल के प्रयोग से वायु शक्ति द्वारा ही चलायी जाती हैं।
पवन शक्ति का प्रयोग कर पवन चक्कियों द्वारा कुओं और नदियों से जल खींचने तथा अनाज पीसने, चारा और लकड़ी काटने के कार्य में किया गया। ईरान, डेनमार्क, हालैण्ड विसकांसिन और आयोवा रियासतों में इनका चलन अत्यधिक हुआ। समशीतोष्ण कटिबन्धीय प्रदेश, जहाँ पछूमा पवन (Westernly Wind) नियमित रूप से चलती है। इसका प्रयोग सामान्य बात रही है।
शक्ति के अन्य सम्भाव्य स्त्रोत विश्व में शक्ति के अगणित स्रोत हैं, इनमें से कुछ पर ही मनुष्य अधिकार प्राप्त कर सका है। विज्ञान की उन्नति के साथ-साथ कुछ और स्रोत ज्ञात होते जा रहे हैं, जिन पर खोज की जा रही है। इनमें प्रमुख है- हाइड्रोजनशक्ति (Hydrogen Power)। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य फॉसिल हाइड्रोकार्बन स्रोत शिला तेल (Oil Shale) केरोगेन (Kerogen) तथा गिल्सोनाइट (Gilsonite) आदि भी ऊर्जा आवश्यकता की पूर्ति के लिए उपलब्ध हैं। इनके शोधन और तेल प्राप्ति हेतु प्राविधिकी का विकास किया जाना अपेक्षित है।
सूर्य ताप, भूतापीय ज्वार शक्ति और हाइड्रोजन शक्ति आदि अपरिमित और असीम शक्तियाँ हैं। मानव अभी तक इनका उपयोग रचनात्मक कार्यों में सुचारू रूप से नहीं कर पाया ह। उद्योग-धंधों के उत्तरोत्तर विकास के कारण इन शक्तियों का प्रयोग करना आवश्यक होता जा रहा है, क्योंकि जलशक्ति के अतिरिक्त अन्य उपयोग की जा रही शक्तियाँ एक न एक दिन समाप्त हो जाने वाली है।
Q.9. भारत में जलग्रहण प्रबन्धन पर लेख लिखिए।
उत्तर :- यह सर्वविदित है कि अब भू-मंडल के दो तिहाई भाग पर जल एवं एक तिहाई भाग पर धरातलीय स्वरूप उपलब्ध है, किंतु प्रकृति प्राप्त उपलब्ध इस जल का लगभग 90 प्रतिशत भाग संप्रति प्रत्यक्ष रूप से मनुष्य के काम नहीं आता है। कुल उपलब्ध जल का 97.2 प्रतिशत भाग समुद्रों में खारे पानी के रूप में विद्यमान है, तो 22 प्रतिशत जल उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों पर बर्फ के रूप में जमा पड़ा है। लगभग 1 प्रतिशत से भी कम शेष बचा यह जल, जो प्रकृति में संचरित हो रहा है, मनुष्य के काम आता है। तीव्रगति से बढ़ रही जनसंख्या एवं उसकी भौतिक आवश्यकताओं की आपूर्ति हेतु प्रकृति में उपलब्ध यह 1 प्रतिशत से भी कम जल दिन-प्रतिदिन आनुपातिक रूप से कम होकर प्रति व्यक्ति उसकी उपलब्धता घटती जा रही है और आने वाली सदी में इस मात्रा में और भी कमी आने की सम्भावना है। अतः जलाभाव में किसी भी प्रदेश के भूमि एवं मानव संसाधनों की पोषणीयता की कल्पना नहीं की जा सकती है।
प्रदेश के भूजल भंडार के विकास के स्तर को ज्ञात करने के लिये निम्नलिखित सर्वमान्य सूत्र को प्रयुक्त किया गया है-
भूजल विकास का स्तर = शुद्ध वार्षिक भूजल उपयोग x 100 सिंचाई के लिये उपलब्ध शुद्ध भूजल भंडा
जलग्रहण प्रबंधन (Water Management)
i. राजस्थान के सीमित जल संसाधन के कारण कृषि उत्पादन प्रमुख रूप से वर्षा पर निर्भर है। कृषि योग्य क्षेत्रफल का मात्र 22 प्रतिशत भाग ही सिंचित है शेष 78 प्रतिशत भाग असिंचित बारानी है। बारानी क्षेत्र में वर्षा के असमान कम मात्रा व कम घनत्व आदि होने के कारण फसल उत्पादन प्रायः असुरक्षित रहता है। इस जोखिम में उभरने के लिये मिश्रित खेती, वानिकी पशुधन विकास, मधुमक्खी पालन आदि कार्य अपनाए जाते हैं।
ii. राज्य की शुष्क भूमि में उत्पादन में होने वाले उतार-चढ़ाव को कम करने, कृषि उत्पादन की समानता बनाए रखने, विकास कार्यों का समुचित उपयोग कर अन्न एवं चारा के उत्पादन की क्षमता बनाए रखने तथा निरंतर जल स्तर में होने वाले ह्रास को दृष्टिगत रखते हुए जलग्रहण आधार पर बारानी क्षेत्र में विकास कार्य कराया जाना आवश्यक समझा गया। इसमें लाभान्वित कृषकों का व्यापक समर्थन व सहयोग प्राप्त हो रहा है।
iii. जलग्रहण क्षेत्र में क्रियान्वित सभी योजनाएँ जन भागीदारी से संचालित होती है। प्रत्येक जलग्रहण क्षेत्र में स्थानीय ग्रामीणों द्वारा गठित यूजर्स समिति जलग्रहण कमेटी अथवा ग्राम पंचायत के माध्यम से विकास कार्य कराए जाते हैं। इसके अतिरिक्त गैर सरकारी संस्थाएँ जो जलग्रहण क्षेत्र के विकास में सहयोगी हो सकती है उनका भी यथा योग्य सहयोग जलग्रहण से जुड़े विभिन्न कार्यों, जैसे जन चेतना जागृत करने, प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन करने, शैक्षणिक भ्रमण आयोजित करने इत्यादि में लिया जाता है।
iv. राज्य में 1957 से भू-संरक्षण कार्य कराए जा रहे हैं। इनमें से अधिकांश कार्य मरु विकास कार्यक्रम एवं सूखा संभावित क्षेत्र कार्यक्रम के तहत ही कराए जा रहे थे।
v. 7वीं पंचवर्षीय योजना के काल में बारानी क्षेत्र के विकास को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से जलग्रहण के आधार पर कार्य कराया जाना प्रारम्भ किया गया। 8वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान भारत सरकार द्वारा शुष्क खेती पर विशेष ध्यान दिया गया और इस हेतु वरियता के आधार पर वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई गई।
जलग्रहण प्रबंधन के विस्तृत उद्देश्य (Detailed objectives of Watershed):
जलग्रहण विकास परियोजनाओं का मुख्य उद्देश्य प्राकृतिक संसाधनों जैसे जल, जंगल, जमीन, जन-मानस, जानवर का स्थायी एवं सतत विकास सुनिश्चित करना, कृषि योग्य लुमइ से उत्पादन एवं उत्पादकता बढ़ाना तथा स्थानीय स्तर पर रोजगार के साधन उपलब्ध कराना है।
i. प्रत्येक चयनित जलग्रहण क्षेत्र में भूमि का संरक्षण करने के उपाय करना ताकि भू-क्षरण को कम करके कृषि उत्पादन व आमदनी बढ़ाई जाए।
ii. जल संसाधन विकास लाभ के लिये जलग्रहण प्रबंधन, संरक्षण व प्रगति को बढ़ाना। जलग्रहण क्षेत्र में प्राकृतिक आपदाएँ जैसे सूखा आदि को प्राकृतिक संसाधनों को बढ़ावा देकर रोकथाम करना।
iii. जलग्रहण क्षेत्र के सामान्य आर्थिक विकास में संसाधनों एवं लाभान्वितों का स्तर बढ़ाना ताकि क्षेत्र में रहने वाले विभिन्न समाज के लोगों में असमानता कम हो सके।
iv. प्राकृतिक संसाधनों के सक्षम उपयोग के लिये जलग्रहण क्षेत्र के सामुदायिक संगठन को मजबूत बनाना ताकि वे विकास कार्यक्रम को आगे बढ़ा सके।
v. रोजगार के अवसर उपलब्ध करवाना।
विकास की विभिन्न गतिविधियाँ
1. सर्वेक्षण एवं परियोजना का प्रारूप तैयार करना
परियोजना का प्रारूप लाभान्वित कृषकों से विचार विमर्श कर उनके अनुभवों के आधार पर तैयार किया जाता है। जलग्रहण क्षेत्र के टोपोग्राफिकल (ग्रिड आधार पर कन्टूर तैयार करना एवं निकास नालियों का क्राॅस सेक्शन एवं एल सेक्शन) सर्वेक्षण, भू-सर्वेक्षण, सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के आधार पर स्थानीय लाभार्थियों से विचार विमर्ष कर उनकी इच्छा उनके अनुभव आदि को ध्यान में रखते हुए परियोजना के प्रारूप को अंतिम रूप दिया जाता है।
2. प्रशिक्षण
जलग्रहण परियोजनाओं के क्रियान्वयन हेतु प्रशिक्षण एक आवश्यक अंग है अतः प्रशिक्षण लाभार्थियों, परियोजना क्रियान्वयन में कार्यरत कर्मचारी एवं अधिकारियों को दिया जाता है। मुख्यतः भूमि एवं नमी संरक्षण की तकनीकी तथा सामुदायिक एवं व्यक्तिगत विकास कार्य के रख-रखाव, उन्नत कृषि विविध, उद्यानिकी, कम्पोस्ट एवं घरेलू बागवानी, पशुधन विकास कार्य, चारा विकास कार्य, मत्स्य पालन, सकल घरेलू उत्पाद आदि में दक्षता हासिल किए जाने के उद्देश्य से प्रशिक्षण दिया जाता है।
3. सामुदायिक संगठन एवं जनभागीदारी
जलग्रहण विकास कार्यों के स्थाई लाभ प्राप्ति हेतु स्थानीय समुदाय की प्लानिंग स्तर पर ही सहभागिता की आवश्यकता है क्योंकि जलग्रहण विकास कार्य स्थानीय समुदाय द्वारा स्थापित कमेटी ग्राम पंचायत के माध्यम से कराए जाते हैं अतः जलग्रहण विकास में जनभागीदारी एवं सामुदायिक संगठन की विशेष भूमिका है। स्वयं सहायता समूह, यूजर्स समूह आदि का गठन किया जाता है तथा जलग्रहण विकास कार्यक्रम संबंधी जानकारी बढ़ाने हेतु भ्रमण कैम्पस आदि आयोजित किए जाते हैं।
4. संरक्षण कार्य
समोच्च खेती, पानी के बहाव को रोकने के लिये कंटूर/वानस्पतिक अवरोध, गली कंट्रोल के तरीके, बैंक ट्रेसिंग, ग्रेडेड बंडिंग, छोटे नालों की रोकथाम दूर करने के साथ-साथ ड्रेनेज लाइन उपचार कराना, नाले के किनारों को मजबूत कराना, एलएससीडी, गैबियन, चेकडैम, ब्रुशवुड, चेकडैम।
Q.10. विश्व में लोहा-इस्पात उद्योग के स्थानीयकरण एवं विकास का विवरण दीजिए।
उत्तर :- लौह इस्पात उद्योग को किसी देश के अर्थिक विकास की धुरी माना जाता है। यह एक आधारभूत उद्योग हैं क्योंकि इसके उत्पाद बहुत से उद्योगों के लिये आवश्यक कच्चे माल के रूप में प्रयुक्त होते हैं। भारत में इसका सबसे पहला बड़े पैमाने का कारख़ाना 1907 में झारखण्ड राज्य में सुवर्णरेखा नदी की घाटी में साकची नामक स्थान पर जमशेदजी टाटा द्वारा स्थापित किया गया गया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत इस पर काफ़ी ध्यान दिया गया और वर्तमान में 7 कारखानों द्वारा लौह इस्पात का उत्पादन किया जा रहा है। लोहा इस्पात अनेक छोटे-बड़े उद्योगों की आधारभूत सामग्री है। सूई से लेकर पोत निर्माण तक लोहा इस्पात उद्योग पर ही आश्रित है। किसी देश के औद्योगिक विकास का मापदंड वहां का लोहा इस्पात ही है। वास्तव में आज हम लोहा इस्पात युग में जी रहे हैं।लोहा एवं इस्पात आधुनिक सभ्यता के लिए वरदान ही नहीं बल्कि दैनिक जीवन की अनिवार्य वस्तु बन गया है। विश्व के कुल धातु उत्पादन का 90% से अधिक लोहा होता है और आर्थिक एवं तकनीकी विकास के साथ साथ इसका उत्पादन और इसकी मांग दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जाती है। इसे आधुनिक अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी कहा जाता है।
लोहा तथा इस्पात बनाने के लिए लौह अयस्क से लौहाशं को कोक, चारकोल, चूना पत्थर आदि मिलाकर भट्टी में प्रगलन के लिए झोंका जाता है। इसे अत्यधिक तापमान पर पिलाने के लिए गर्म हवा, ऑक्सीजन अथवा ट्रेन के तीव्र झोंको द्वारा भट्टियों में डाला जाता है। इन भट्टियों को झोंका भट्टी कहते हैं। पिघला हुआ लोहा सांचे में डाल दिया जाता है यहां पर ठंडा होकर ठोस बन जाता है इसे कच्चा लोहा कहते हैं।
भौगोलिक कारक- इसके अंतर्गत निम्नलिखित तत्त्वों को शामिल किया जाता है-
कच्चा माल
उद्योग सामान्यतः वहीं स्थापित किये जाते हैं जहाँ कच्चे माल की उपलब्धता होती है। जिन उद्योगों में निर्मित वस्तुओं का भार, कच्चे माल की तुलना में कम होता है, उन उद्योगों को कच्चे माल के निकट ही स्थापित करना होता है। जैसे- चीनी उद्योग। गन्ना भारी कच्चा माल है जिसे अधिक दूरी तक ले जाने से परिवहन की लागत बहुत बढ़ जाती है और चीनी के उत्पादन मूल्य में वृद्धि हो जाती है।
लोहा और इस्पात उद्योग में उपयोग में आने वाले लौह-अयस्क और कोयला दोनों ही वज़न ह्यस और लगभग समान भार के होते हैं। अतः अनुकूलनतम स्थिति कच्चा माल व स्रोतों के मध्य होगी जैसे जमशेदपुर।
शक्ति (ऊर्जा)
उद्योगों में मशीन चलाने के लिये शक्ति की आवश्यकता होती है। शक्ति के प्रमुख स्रोत- कोयला, पेट्रोलियम, जल-विद्युत, प्राकृतिक गैस तथा परमाणु ऊर्जा है। लौह-इस्पात उद्योग कोयले पर निर्भर करता है, इसलिये यह उद्योग खानों के आस-पास स्थापित किया जाता है। छत्तीसगढ़ का कोरबा तथा उत्तर प्रदेश का रेनूकूट एल्युमीनियम उद्योग विद्युत शक्ति की उपलब्धता के कारण ही स्थापित हुए हैं।
श्रम
स्वचालित मशीनों तथा कंप्यूटर युग में भी मानव श्रम के महत्त्व को प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता। अतः सस्ते व कुशल श्रम की उपलब्धता औद्योगिक विकास का मुख्य कारक है।
जैसे- फिरोजाबाद में शीशा उद्योग, लुधियाना में होजरी तथा जालंधर व मेरठ में खेलों का सामान बनाने का उद्योग मुख्यतः सस्ते कुशल श्रम पर ही निर्भर है।
परिवहन एवं संचार
कच्चे माल को उद्योग केंद्र तक लाने तथा निर्मित माल की खपत के क्षेत्रों तक ले जाने के लिये सस्ते एवं कुशल यातायात की प्रचुर मात्रा में होना अनिवार्य है। मुम्बई, चेन्नई, दिल्ली जैसे महानगरों में औद्योगिक विकास मुख्यतः यातायात के साधनों के कारण ही हुआ है।
बाज़ार
औद्योगिक विकास में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका तैयार माल की खपत के लिये बाज़ार की है।
सस्ती भूमि और जलापूर्ति
उद्योगों की स्थापना के लिये सस्ती भूमि का होना भी आवश्यक है। दिल्ली में भूमि का अधिक मूल्य होने के कारण ही इसके उपनगरों में सस्ती भूमि पर उद्योगों ने द्रुत गति से विकास किया है।
उपर्युक्त भौगोलिक कारकों के अतिरिक्त पूंजी, सरकार की औद्योगिक नीति, औद्योगिक जड़त्व, बैंकिग तथा बीमा आदि की सुविधा ऐसे गैर-भौगोलिक कारक हैं जो किसी स्थान विशेष में उद्योगों की स्थापना को प्रभावित करते हैं।
वितरण एवं व्यापार:
लौह और इस्पात उद्योग की वृद्धि और विकास वैश्विक अर्थव्यवस्था का प्रतिबिंब है। लोहा और इस्पात उद्योग अपने विकास और उत्पादन पैटर्न में एक बदलती प्रकृति को दर्शाता है। मध्य में अमेरिका, पश्चिमी यूरोप और जापान के अपेक्षाकृत विकसित देशों ने दुनिया के इस्पात उत्पादन का लगभग दो-तिहाई हिस्सा उत्पादन किया। लेकिन धीरे-धीरे स्थानिक पैटर्न बदल गया और अब यह उत्पादन का हिस्सा विकासशील क्षेत्रों में स्थानांतरित हो गया है। [३]पिछली सदी के अंत तक, चीन, दक्षिण कोरिया, ब्राजील और भारत जैसे देशों में इस्पात उत्पादन में वृद्धि ने दुनिया में इस्पात उत्पादन के पूरे ढांचे को बदल दिया है।अब दुनिया में लोहे और स्टील के मुख्य उत्पादक चीन, जापान, अमेरिका, रूस, जर्मनी, दक्षिण कोरिया, ब्राजील, यूक्रेन, भारत, फ्रांस, इटली और ग्रेट ब्रिटेन हैं। अन्य इस्पात उत्पादक देश दक्षिण अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, ऑस्ट्रिया, नीदरलैंड, चेक गणराज्य, रोमानिया, स्पेन, बेल्जियम, स्वीडन, आदि हैं।
Q.11.अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में स्वेज नहर का महत्त्व समझाइये।
उत्तर :- यह नहर स्वेज के इस्तमुस से होकर अफ्रीका और एशिया को विभाजित करते हुए भूमध्य सागर को लाल सागर से जोड़ता है। 1858 में, फर्डिनेंड डी लेसेप्स ने नहर के निर्माण के व्यक्त उद्देश्य के लिए स्वेज़ नहर कम्पनी का गठन किया। नहर का निर्माण तुर्क साम्राज्य के तत्वावधान में सन् 1859 से 1869 तक हुआ। नहर आधिकारिक रूप से 17 नवम्बर 1869 को खोली गई थी। 1866 ई. में इस नहर के पार होने में 36 घण्टे लगते थे पर आज 18 घण्टे से कम समय ही लगता है। यह वर्तमान में मिस्र देश के नियन्त्रण में है। इस नहर का चुंगी कर बहुत अधिक है। इस नहर की लम्बाई पनामा नहर की लम्बाई से दुगुनी होने के बाद भी इसमें पनामा नहर के खर्च का 1/3 धन ही लगा है।
इतिहास:
इस नहर का प्रबन्ध पहले "स्वेज़ कैनाल कम्पनी" करती थी जिसके आधे शेयर फ्रांस के थे और आधे शेयर तुर्की, मिस्र और अन्य अरब देशों के थे। बाद में मिस्र और तुर्की के शेयरों को अंग्रेजों ने खरीद लिया। 1888 ई. में एक अन्तरराष्ट्रीय उपसन्धि के अनुसार यह नहर युद्ध और शान्ति दोनों कालों में सब राष्ट्रों के जहाजों के लिए बिना रोकटोक समान रूप से आने-जाने के लिए खुली थी। ऐसा समझौता था कि इस नहर पर किसी एक राष्ट्र की सेना नहीं रहेगी। किन्तु अंग्रेजों ने 1904 ई॰ में इसे तोड़ दिया और नहर पर अपनी सेनाएँ बैठा दीं और उन्हीं राष्ट्रों के जहाजों के आने-जाने की अनुमति दी जाने लगी जो युद्धरत नहीं थे। 1947 ई॰ में स्वेज कैनाल कम्पनी और मिस्र सरकार के बीच यह निश्चय हुआ कि कम्पनी के साथ 99 वर्ष का पट्टा रद्द हो जाने पर इसका स्वामित्व मिस्र सरकार के हाथ आ जाएगा। 1951 ई. में मिस्र में ग्रेट ब्रिटेन के विरुद्ध आन्दोलन छिड़ा और अन्त में 1954 ई॰ में एक करार हुआ जिसके अनुसार ब्रिटेन की सरकार कुछ शर्तों के साथ नहर से अपनी सेना हटा लेने पर राजी हो गई। पीछे मिस्र ने इस नहर का 1956 में राष्ट्रीयकरण कर इसे अपने पूरे अधिकार में कर लिया।
उपयोगिता:
स्वेज नहर से गुजरती हुई एक कन्टेनर जहाज इस नहर के कारण यूरोप से एशिया और पूर्वी अफ्रीका का सरल और सीधा मार्ग खुल गया और इससे लगभग 6,000 मील की दूरी की बचत हो गई। इससे अनेक देशों, पूर्वी अफ्रीका, ईरान, अरब, भारत, पाकिस्तान, सुदूर पूर्व एशिया के देशों, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि देशों के साथ व्यापार में बड़ी सुविधा हो गई है और व्यापार बहुत बढ़ गया है।
यातायात:
स्वेज नहर में यातायात कॉन्वॉय (सार्थवाह) के रूप में होता है। प्रतिदिन तीन कॉन्वॉय चलते हैं, दो उत्तर से दक्षिण तथा एक दक्षिण से उत्तर की तरफ। जलयानों की गति 11 से 16 किलोमीटर प्रति घण्टे के बीच होती है। इस नहर की यात्रा का समय 12 से 16 घण्टों का होता है।
स्वेज नहर का जलमार्ग;
स्वेज नहर जलमार्ग में जलयान 12 से 15 किमी प्रति घण्टे की गति से चलते है क्योंकि तेज गति से चलने पर नहर के किनारे टूटने का भय बना रहता है। इस नहर को पार करने में सामान्यत: 12 घण्टे का समय लगता है। इस नहर से एक साथ दो जलयान पार नही हो सकते हैं, परन्तु जब एक जलयान निकलता है तो दूसरे जलयान को गोदी में बाँध दिया जाता है इस प्रकार इस नहर से होकर एक दिन मे अधिकतम 24 जलयानो का आवागमन हो सकता है।
स्वेज नहर से व्यापार ;
स्वेज नहर मार्ग से फारस की खाड़ी के देशों से खनिज तेल, भारत तथा अन्य एशियाई देशों से अभ्रक, लौह-अयस्क, मैंगनीज़, चाय, कहवा, जूट, रबड़, कपास, ऊन, मसाले, चीनी, चमड़ा, खालें, सागवान की लकड़ी, सूती वस्त्र, हस्तशिल्प आदि पश्चिमी यूरोपीय देशों तथा उत्तरी अमेरिका को भेजी जाती है तथा इन देशों से रासायनिक पदार्थ, इस्पात, मशीनों, विजाणु उपकरण,औषधियों, मोटर गाड़ियों, वैज्ञानिक उपकरणों आदि का आयात किया जाता है।
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