महाराजा छत्रसाल बुन्देलखण्ड विश्वविधालय छतरपुर (मध्यप्रदेश)

 B.A. (Second Year) Examination, 2020-21

(For Regular Students)

HISTORY

Paper : First


1. सही उत्तर का चयन कीजिए

(i) चालीस मण्डल का गठन किस शासक ने किया था?

    (a) बलबन 

    (b) कुतुबुद्दीन ऐबक 

    (c) इल्तुतमिश ✅

    (d) रजिया सुल्तान 

(ii) विजय नगर राज्य की स्थापना किसने की?

    (a) कृष्ण देव राय

    (b) हरिहर द्वितीय

    (c) हरिहर तथा बुक्का ✅

    (d) देवराय द्वितीय

(iii) शिवाजी की माँ का नाम था-

    (a) ताराबाई 

    (b) जीजाबाई✅

    (c) लक्ष्मीबाई

    (d) इनमें से कोई नहीं 

(iv) सल्तनत काल प्रारम्भ हुआ-
    
    (a) लोदी वंश से

    (b) तुगलक वंश से

    (c) खिलजी वंश से

    (d) गुलाम वंश से✅

(v) मनसबदारी प्रथा किस मुगल शासक ने प्रारम्भ की?

    (a) बाबर 

    (b) अकबर ✅

    (c) जहाँगीर 

    (d) औरंगजेब

Q.2. कुतुबुद्दीन ऐबक के कार्यों का मूल्यांकन कीजिए।  
उत्तर ;- कुतुबुद्दीन ऐबक ने अपने चार वर्षीय अल्प शासनकाल में इन समस्याओं का समाधान करने का प्रयास किया, किन्त उसके ये चार वर्ष अत्यन्त कष्टप्रद थे। उसे निरन्तर अपने साम्राज्य की सुरक्षा में व्यस्त रहना पड़ा। जिसके कारण वह देश की शासन व्यवस्था में सुधार न कर सका। उसकी शासन पद्धति सैनिक थी तथा वह सेना की सहायता से ही प्रशासन करता था। कुतुबुद्दीन ऐबक चतुर कुटनीतिज्ञ था। अत: उसने इन सभी कठिनाइयों का समाधान आसानी के साथ किया।

यल्दौज से संघर्ष-उसने सर्वप्रथम यल्दौज जो किरमान का हाकिम था, पर आक्रमण किया, कारण था कि यल्दौज ने पंजाब पर आक्रमण किया था। इस युद्ध में ऐबक ने यल्दौज को परास्त किया तथा पंजाब छोड़ने को बाध्य किया। यल्दौज से मधुर सम्बन्ध बनाये रखने हेतु ऐबक ने अपना विवाह यल्दौज की पुत्री के साथ किया। गजनी पर ख्वारिज्म का शाह आँख गड़ाये बैठा था। अत: गजनी के नागरिकों ने ऐबक को आमन्त्रित किया। ऐबक ने गजनी पर 1208 ई. में अधिकार कर लिया। नागरिक ऐबक से सन्तुष्ट न हो सके। अत: उन्होंने पुनः यल्दौज को बुलाया। गजनी पर ऐबक का 40 दिन तक का अधिकार रहा। एल. पी.शर्मा का कहना है कि, “ऐबक का गजनी अभियान सफल होते हुए भी स्थायी लाभ का न रहा परन्तु यल्दौज भी उसके भारत के राज्य पर अधिकार करने में असमर्थ रहा तथा ऐबक ने दिल्ली के स्वतन्त्र अभियान को स्थापित रखने में सफलता प्राप्त की।

कुबाचा से सम्बन्ध-कुतुबुद्दीन ऐबक ने इसके पश्चात् डच के शासक नासिरुद्दीन कुबाचा की ओर ध्यान दिया। कुबाचा ने अपनी सैनिक शक्ति सुदृढ़ कर ली थी। ऐबक ने कुबाचा से वैवाहिक सम्बन्ध बनाकर उसको अपना समर्थक बना लिया। कुतुबुद्दीन ऐबक ने अपनी बहिन का विवाह कुबाचा के साथ कर दिया। ऐबक ने अपनी पुत्री की शादी अपने दास इल्तुमिश से कर दी तथा उसे बदायूँ का शासक बना दिया। ऐबक ने मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी को भी अपना समर्थक बना लिया।

Q.3.भारत पर तैमूर के आक्रमण के कारणों पर प्रकाश डालिए। 
उत्तर ;- तैमूर भारत पर विजय प्राप्त करके भारत पर आक्रमण करने वाले वीरों में अपनी गणना करना चाहता था, इसके अतिरिक्त वह महमूद गजनवी तथा मुहम्मद गौरी के समान भारत पर आक्रमण करके भारत का धन लूटना चाहता था। वह काफिरों पर विजय प्राप्त करना चाहता था। तैसूर के इस प्रकार विचारों के साथ इस समय भारत के अनेक ऐसे कारण उपस्थित हो गये, जिनमें तैमूर को भारत पर आक्रमण करने के उद्देश्य से सफलता प्राप्त हुई।
1. भारत में अराजकता- फिरोज तुगलक के उपरान्त भारत में अराजकता फैली और उसमें वृद्धि होती गई, जो उसके अयोग्य उत्तराधिकारियों के वंश की बात नहीं थी। ऐसे समय में तैमूर ने समय का लाभ उठाने की बात सोची और भारत पर आक्रमण कर दिया।

2.धन का लालच-तैमूर के आक्रमण का एक कारण यह भी था कि वह भारतीय राज्यों का धन लूटना चाहता था क्योंकि उसका स्वयं का राजकोष भी रिक्त हो चुका था।

3. धार्मिक कट्टरता- तैमूर इस्लाम धर्म को मानता था। वह एक कट्टर मुसलमान था। इसी कारण वह काफिरों पर विजय प्राप्त करना चाहता था और स्वयं मुजाहिद की उपाधि प्राप्त करना चाहता था।

4. तत्कालीन कारण-तैमूर के आक्रमण का तत्कालीन कारण तैमूर के पोते पीर मुहम्मद व सुल्तान के शासन सरंगखाँ के मध्य संघर्ष था। वीर मुहम्मद काबुल का गवर्नर था, वह सरंगखाँ से कर लेना चाहता था, जिसे संरग मना कर चुका था। सरंग द्वारा कर न देने के प्रश्न पर तैमूर व उसके पोते ने 1399 ई. में भारत पर आक्रमण कर दिया।

Q.4. अकबर की राजपूत नीति का वर्णन कीजिए। 
उत्तर ;- अकबर एक उच्चकोटि का राजनीतिज्ञ शासक था। उसकी सफलता सैनिक शक्ति पर नहीं, वरन उसकी उदार और सहिष्णु नीति पर आधारित थी। अकबर ने हिन्दु-मुसलमानों की एकता को सद्भावना का आधार प्रदान किया उसने शान्ति सांत्वना की नीति अपनाई वह हिन्दुओं से प्रभावित था। वह यह जानता था कि उसके पूर्वज बाबर को राणा साँगा और मैदिनीराय से संघर्ष करने पड़े थे। वह राजपूतों से भी काफी प्रभावित था वह जानता था कि बिना राजपूतों के सहयोग के आराम से शासन नहीं कर सकता है। राजपूत जाति अपनी वीरता के लिए प्रसिद्ध थी अत: उसने राजपूत शक्ति को अपने साम्राज्य का आधार स्तम्भ बना लिया। राजपूतों से सहयोग की नीति अकबर की उदार भावनाओं का परिणाम नहीं थी अपितु यह नीति दृढ़ राजनीतिक सिद्धान्तों, निजी स्वार्थ के कारणवश थी। अकबर द्वारा राजपूतों से मैत्री सम्बन्ध बनाने के विषय में डॉ. इश्वरीप्रसाद का कथन है कि, “बिना राजपूतों के भारतीय साम्राज्य सम्भव नहीं था तथा बिना उनके विवेकपूर्ण तथा सक्रिय सहयोग के सामाजिक तथा राजनीतिक एकता स्थापित नहीं हो सकती थी। नयी राज संस्था हिन्दुओं तथा मुसलमान दोनों को मिलाकर बनानी थी और दोनों का कल्याण करना था।" राजपूतों से मैत्री सम्बन्ध बनाने का कारण यह भी था कि अकबर का मुसलमानों से विश्वास उठ गया था। उस समय राजपूत जाति ही ऐसी थी जो विश्वासनाय था। अत: अकबर ने इसी कारण राजपूतों से मैत्री सम्बन्ध बनाये।

 Q. 5. भक्ति आन्दोलन की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए। 
उत्तर ;- भक्ति आंदोलन की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार थीं...

1.भक्ति आंदोलन का की मूल अवधारणा एक ईश्वर पर आधारित थी। भक्ति आंदोलन के अधिकतर संतो ने ईश्वर एक है, इस सिद्धांत को प्रतिपादित किया।
2.भक्ति आंदोलन में व्यर्थ के धार्मिक कर्मकांडों, आडंबरों आदि का विरोध और परित्याग किया था।
भक्ति आंदोलन समानता का समर्थक आंदोलन था, जिसमें जातिगत धर्म या जातिगत भेदभाव पूर्ण रूप से निषिद्ध किया गया था।
3. भक्ति आंदोलन के अधिकतर कवि-संत समाज सुधारक भी रहे और उन्होंने सामाजिक कुरीतियों का विरोध भी किया।
4.भक्ति आंदोलन पर सामाजिक सद्भाव का आंदोलन था, इसमें हिंदु-मुस्लिम एकता और सामाजिक समरसता पर जोर दिया गया था।
5.भक्ति आंदोलन ईश्वर की सच्ची, आडंबर रहित और निष्काम भक्ति पर जोर देता था।
6.भक्ति आंदोलन के अधिकतर संतो ने जो भी रचनाएं की व जनसाधारण की सामान्य भाषा में की और अपने जो भी उपदेश दिए वह भी सामान्य जन की भाषा में ही होते थे।
7.भक्ति आंदोलन के प्रमुख कवि-संतों में कबीर, नानक, रैदास, मीराबाई, तुलसीदास, सूरदास, संत दादू दयाल आदि के नाम प्रमुख हैं

Q.6 मुगल काल में स्त्रियों की दशा का उल्लेख कीजिए।
उत्तर ;- मुगल काल में सामाजिक-आर्थिक जीवन के बारे में इस काल के साहित्यिक एंव ऐतिहासिक ग्रन्‍थों से कुछ जानकारी मिलती है, परन्‍तु इस विषय पर सबसे ज्‍यादा मदद मिलती है 16वीं और 17वीं शताब्‍दी में भारत आए यूरोपीय यात्रियों के यात्रा विवरणों से। इन यात्रियों ने भारत के विभिन्‍न क्षेत्रों का अवलोकन किया तथा समाज के विभिन्‍न तबकों के सम्‍पर्क में भी आए। यद्यपि इनके यात्रा वृंतातों में अनेक दोष हैं, तथापि ये यात्रा विवरण ही इस युग की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को जानने के मुख्‍य स्‍त्रोत है।
मुगल काल मे स्त्रियों की दशा व स्थिति निम्न बिन्दुओं द्वारा समझा जा सकता है--
1. पुत्री-जन्‍म को अशुभ मानना :
सल्‍तनत काल की तरह ही मुगल काल में भी पुत्री के जन्‍म को अशुभ माना जाता था। पुत्र के उत्‍पन्‍न होने पर जितनी प्रसन्‍नता होती थी, उसके विपरीत उतना ही दुःख लड़की के जन्‍म पर होता था। राजपूत काल के इतिहास में कर्नल टाउ के अनुसार,‘‘ वह पतन का दिन होता था, जब एक कन्‍या का जन्‍म होता था। पुत्र-जन्‍म पर दावतें हेाती थी, मुगल-गीत गाये जाते थे, परन्‍तु कन्‍या के जन्‍म लेने पर परिवार पर दुःख के बादल छा जाती थे।‘‘

2. पर्दा प्रथा :
भारत में प्राचीन समय में पर्दा-प्रथा का प्रचलन नहीं था। लेकिन जब मध्‍यकाल में मुस्लिम आक्रमणकारी द्वारा भारत में सत्ता प्राप्‍त की गई। तभी इस प्रथा का प्रचलन प्रांरभ हुआ था। इसी प्रकार स्‍वाभाविक है कि मुगलकाल में भी पर्दा-प्रथा का प्रचलन था। मुस्लिम स्त्रियां बुर्के का प्रयोग करती थी। विशेष अवसरों पर ही स्त्रियां घर से बाहर निकलती थी। मुस्लिम शासक वर्ग ने भी पर्दा प्रथा का अनुसरण किया था लेकिन नूरजहां को उक्‍त का अपवाद कहा जा सकता है। हिन्‍दू भी इस प्रथा से प्रभावित हुए। जायसी तथा विद्यापति ने उत्तर प्रदेश एंव बंगाल में हिन्‍दू घरों में पर्दे के प्रचलन की बात कही है। धीरे-धीरे राजपूतों में भी इस प्र‍था का प्रसार हुआ। कुलीन घराने की स्त्रियां घर से बाहर घूंघट निकाल कर निकलती थीं। निम्‍न हिन्‍दू वर्ग की स्त्रियां पर्दा नहीं करती थीं। दक्षिण भारत में पर्दा प्रथा नहीं थी। 
3. बहु-विवाह :
कुरान मुस्लिम वर्ग के लोगों को चार पत्नियां रखने की छूट देती है। किसी सीमा तक उच्‍च घरों में इस नियम को अपनाया भी गया था, परन्‍तु निम्‍न वर्ग के मुसलमानों में बहु-विवाह का प्रचलन नहीं था। सर्वसाधारण एक पत्‍नी व्रत का पालन करता था, जिसका प्रमुख कारण आर्थिक असमर्थता थी। अकबर बहु-विवाह के दोषों को पहचानाता था, इस पर उसने यह आज्ञा दे दी थीं कि यदि प्रथम पत्‍नी बांझ है तो पुरुष विवाह कर सकता है। इस कथन की पुष्टि बदायूंनी के कथन से भी होती है। परन्‍तु व्‍यवहार में क्‍या होता था यह कहना कठिन है क्‍योकि अकबर की स्‍वंय 5,000 स्त्रियां थी।  

Q. 7.सल्तनत काल के इतिहास के स्रोतों का वर्णन कीजिए। 
उत्तर ;- सल्तनत काल के हमारे प्रमुख स्रोत मुख्य रूप से फ़ारसी और अरबी में हैं।
ये दो श्रेणियों में विभाजित हैं: (ए) इतिहास। (ख) यात्रा।
(ए) इतिहास:
1. 'चाच-नामा':
चाच-नाम मूल रूप से अरबी में लिखा गया था। नसीर-उद-दीन कुब्ह के काल में मुहम्मद अली-बिन-अबू बक्र कुफी द्वारा फारसी में इसका अनुवाद किया गया था। यह अरब विजय के इतिहास का लेखा प्रदान करता है।
2. 'किताब-उल-यामिनी':
इसे अबू नसर बिन मुहम्मद अल जब्बरल उतबी ने लिखा था। यह सुबुक्तगीन और महमूद गजनी के शासन का इतिहास है। यह तिथियों में कमी है। यह इतिहास से ज्यादा साहित्य का काम है।
3. तारिख-उल-हिंद:
यह अल बेरूनी द्वारा लिखा गया है जो खवारिगम के थे।
4. 'कामिल-उत-तवारीख':
इस पुस्तक के लेखक शेख अब्दुल हुसैन, जिन्हें 'इब्न-उल-असिर' के नाम से जाना जाता है, मेसोपोटामिया के थे। यह काम 1230 में पूरा हुआ था। यह भारत के घूर की विजय के मुहम्मद के बारे में कुछ जानकारी प्रदान करता है। पुस्तक में दी गई तिथियां सही और बड़ी हैं, लेकिन विवरणों को आधार माना जाता है।
5. 'ताज-उल-मासिर':
हसन निजामी इस पुस्तक के लेखक हैं और उन्होंने 1192 से 1228 तक की अवधि को कवर किया है। इसे कुतुब-उद-दीन ऐबक के करियर और इल्तुतमिश के शुरुआती वर्षों में एक विश्वसनीय खाता माना जाता है। हसन निजामी इन दोनों शासकों के समकालीन थे।
(ख) यात्रा: 
1. मैक्रों पोलो और उनकी यात्रा (यूल द्वारा संपादित):
इस पुस्तक में लोगों के जीवन के विभिन्न पहलुओं और 13 वीं शताब्दी के दक्षिणी भारत की अन्य घटनाओं का वर्णन किया गया है।
2. अब्दुर रज्जाक:
रज़्ज़ाक एक फ़ारसी था जो एक दूत के रूप में विजयनगर के राजा के दरबार में आया था। वह वहां 1442-1443 में रहे। उन्होंने स्थितियों का एक विस्तृत विवरण-प्रशासनिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक छोड़ दिया है। रज़्ज़ाक का वर्णन महान ऐतिहासिक मूल्य माना जाता है।
3.निकोलो कोंटी:
निकोलो कोंटी एक इतालवी यात्री थे जिन्होंने 1520 में भारत का दौरा किया था। उन्होंने इस अवधि के लोगों के रीति-रिवाजों, शिष्टाचार और स्थितियों का विवरण दिया।
4.डोमिंगोस पेस:
पेस एक पुर्तगाली यात्री था और उसने विजयनगर साम्राज्य का एक विस्तृत विवरण छोड़ दिया है।
5.एडोआर्डो बारबोसा:
बारबोसा ने 1516 में भारत का दौरा किया और विशेष रूप से दक्षिणी भारत का खाता और विशेष रूप से विजयनगर दिया।

Q.8.शेरशाह सूरी के सुधारों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर ;- शेरशाह सूरी का असली नाम फरीद था. वह 1486 ईस्वी में पैदा हुआ था. उसके पिता एक अफगान अमीर जमाल खान की सेवा में थे. जब वह युवावस्था में था तब वह एक अमीर बहार खान लोहानी के सेवा में रहा था. बहार खान के अधीन ही जब वह काम कर रहा था तभी उसने अपने हाथो से एक शेर की हत्या की थी जिसकी वजह से बहार खान लोहानी ने उसे शेर खान की उपाधि दी थी। 

        बहार खान लोहानी के शासन के अन्य अमीरों के जलन के कारण शेर शाह को दरबार से बाहर निकाल दिया गया. इस तरह शेर शाह मुग़ल शासक बाबर के दरबार में चला गया. इस दौरान उसने अपनी सेवा के बदले में एक जागीर भी हासिल की. बाबर की सेवा के दौरान शेर शाह ने मुगलों शासको और उनकी सेनाओ की बहुत सारी ताकतों और कमियों का गहराई से मूल्यांकन किया। 

        जल्दी ही उसने मुगलों के खेमे को छोड़ दिया और बहार खान लोहानी का प्रधानमंत्री बन गया. बहार खान लोहानी की मृत्यु के बाद वह बहार खान लोहानी के समस्त क्षेत्र का इकलौता मालिक बन गया। 
प्रशासनिक सुधार :
शेरशाह सूरी ने अपने साम्राज्य के अन्तर्गत अनेक प्रशासनिक सुधार किए थे जिनका उल्लेख निम्नवत है। 
उसने अपने पूरे साम्राज्य को 47 सरकारों (डिवीजनों) में विभाजित किया. सरकार पुनः परगना में विभाजित थे. अधिकारियों का वह वर्ग जो परगना स्तर के शासन कार्य में सहभागिता अपनाते थे उन्हें शिकदार कहा जाता था. शिकदार परगाना स्तर के सभी नियमो और कानूनों का प्रमुख था। 

परगना स्तर के अन्य अधिकारियों का जिक्र निम्नवत है.
• मुंसिफ परगना स्तर के सभी राजस्व का संकलन करता था. इस स्तर के सभी कर सम्बंधित कार्यो का वह प्रमुख होता था.

• अमीर इस स्तर के सभी सिविल केसों की सुनवाई करता था.

• क़ाज़ी या मीर-ए-अदल इस स्तर पर सभी क्रिमिनल केसों की सुनवाई के लिए नियुक्त किया जाता था.

• मुकद्दम की नियुक्ति सभी प्रकार के दोषियों को गिरफ्तार करने के लिए किया जाता था.

अन्य सुधार
• रुपया(चाँदी का सिक्का) को भारत में जारी करने वाला प्रथम शासक शेर शाह सूरी था. उसके इसे जारी करने के बाद यह मुग़ल शासको के परवर्ती काल तक चलता रहा.

• शेरशाह सूरी  ने अपने शासन काल में पट्टा व्यवस्था को जारी किया जिसके अंतर्गत राजस्व से सम्बंधित सभी प्रकार के प्रावधानों का जिक्र रहता था.

• उसने जागीर व्यवस्था के स्थान पर कबूलियत व्यवस्था को लागू किया. कबूलियत व्यवस्था के अंतर्गत किसानो और सरकार के मध्य एक समझौता सम्पन्न किया जाता था.

• शेरशाह सूरी ने शासनिक, प्रशासनिक और सामरिक दृष्टि से गंगा के मैदानो के किनारे-किनारे अनेक सड़को का निर्माण करवाया था.

Q.9. अकबर की राजपूत नीति का वर्णन कीजिए। 
उत्तर ;- अकबर एक उच्चकोटि का राजनीतिज्ञ शासक था। उसकी सफलता सैनिक शक्ति पर नहीं, वरन उसकी उदार और सहिष्णु नीति पर आधारित थी। अकबर ने हिन्दु-मुसलमानों की एकता को सद्भावना का आधार प्रदान किया उसने शान्ति सांत्वना की नीति अपनाई वह हिन्दुओं से प्रभावित था। वह यह जानता था कि उसके पूर्वज बाबर को राणा साँगा और मैदिनीराय से संघर्ष करने पड़े थे। वह राजपूतों से भी काफी प्रभावित था वह जानता था कि बिना राजपूतों के सहयोग के आराम से शासन नहीं कर सकता है। राजपूत जाति अपनी वीरता के लिए प्रसिद्ध थी अत: उसने राजपूत शक्ति को अपने साम्राज्य का आधार स्तम्भ बना लिया। राजपूतों से सहयोग की नीति अकबर की उदार भावनाओं का परिणाम नहीं थी अपितु यह नीति दृढ़ राजनीतिक सिद्धान्तों, निजी स्वार्थ के कारणवश थी। अकबर द्वारा राजपूतों से मैत्री सम्बन्ध बनाने के विषय में डॉ. इश्वरीप्रसाद का कथन है कि, “बिना राजपूतों के भारतीय साम्राज्य सम्भव नहीं था तथा बिना उनके विवेकपूर्ण तथा सक्रिय सहयोग के सामाजिक तथा राजनीतिक एकता स्थापित नहीं हो सकती थी। नयी राज संस्था हिन्दुओं तथा मुसलमान दोनों को मिलाकर बनानी थी और दोनों का कल्याण करना था।" राजपूतों से मैत्री सम्बन्ध बनाने का कारण यह भी था कि अकबर का मुसलमानों से विश्वास उठ गया था। उस समय राजपूत जाति ही ऐसी थी जो विश्वासनाय था। अत: अकबर ने इसी कारण राजपूतों से मैत्री सम्बन्ध बनाये। 

1.राजपूतों को उच्च पद प्रदान करना-अकबर ने राजपूतों से मैत्री बढ़ाने के लिए | राजपतों को उच्च पद प्रदान किये। अकबर ने राजपूतों को सेना में भी भर्ती करना शुरू कर दिया। इसका अकबर को बहुत लाभ हुआ। इन राजपूतों ने मुगल साम्राज्य की रक्षा की तथा उसका विस्तार करने में बहुत सहयोग दिया था। अकबर ने इन राजपूतों को मुसलमान शासकों के विरुद्ध भी किया। अकबर ने राजपूतों को केन्द्रीय सरकार में उच्च पद दिये।

2.राजपूतों से वैवाहिक सम्बन्ध-राजपूतों से मैत्री सम्बन्ध बनाने के लिए राजपूतों से अकबर ने वैवाहिक सम्बन्ध भी बनाये। अकबर ने सर्वप्रथम राजपूत राजा भारमल की पुत्री मानबाई से 1562 ई. में वैवाहिक सम्बन्ध बनाये। डॉ. आर.पी. त्रिपाठी लिखते हैं कि, “यह किसी राजपूत राजकुमारी का अकबर के साथ प्रथम विवाह था। एसा नात का शुरुआ जिसन भारत में मुगल शासन पर पर्याप्त प्रभाव डाला था। प्रथम राजपूत कन्या से विवाहक बाद अकबर ने विवाह बीकानेर के राजा की पत्री, जैसलमेर के राजा की पुत्री से किया। 1584 इ.सभगवानदास की पत्री से शहजादा सलीम से अकबर नाववाह करवा दिया।

3.धार्मिक सहिष्णुता की नीति-अकबर ने सभी को अपने धर्म का पालन करने की स्वतन्त्रता दे दी थी। उसने अपनी हिन्दू पलियों को अपना-अपना धर्म पालन की स्वतन्त्रता दे ङ्के रखी थी। 1989 1. में उसने हिमsil से शाHI कार समाप्त पार दिया । उसका बाद 15654 ई. में अकबर ने हिन्दुओं से जजिया कर समाप्त कर दिया। अकबर ने हिन्दुओं के धार्मिक त्यौहारों को भी मनाना शुरू कर दिया। इन सभी कार्यों से राजपूत अकबर के समीप आ गये।

4.राजपूत राजाओं को अभयदान- अकबर इस तथ्य से भली भाँति परिचित था कि यदि किसी राजपूत राज्य पर वह अधिकार भी कर लेगा तो वह स्थायी रूप से वहाँ शासन नहीं कर सकेगा, अत: जिन राजपूत राजाओं ने उनके विरुद्ध युद्ध भी लड़े उन्हें भी अकबर ने क्षमा कर दिया। इस प्रकार यदि कोई राजपूत शासक अकबर का आधिपत्य स्वीकार कर लेता था तो अकबर उससे मित्रता कर लेता था।
5..राजपूतों की शक्ति का उपयोग-अकबर अत्यन्त कूटनीतिज्ञ शासक था। उसने राजपूतों की शक्ति का राजपूतों के विरुद्ध ही प्रयोग किया व अपनी आकांक्षाओं की पर्ति की। उदाहरण के लिए राणाप्रताप के विरुद्ध राजा मानसिंह को युद्ध करने के लिए भेजा गया। इसी प्रकार आमोर के राजपूतों ने रणथम्भौर व मेवाड़ आदि पर अपना अधिकार करने में मुगला की सहायता की।

अकबर की राजपूत नीति के परिणाम अकबर की राजपूत नीति का भारतीय राजनीतिक स्थिति पर व्यापक प्रभाव हुआ व उसके महत्वपूर्ण परिणाम हुए जिनमें से प्रमुख अग्रलिखित थे-
1. अनेक राजपूतो नरेशों ने मुगल साम्राज्य के विस्तार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। राजपूत मुगल साम्राज्य की ढाल बन गये।
 2. अकबर की उदार और मैत्रीपूर्ण नीति के कारण हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतियों में समन्वय स्थापित हुआ।
3. अकबर की उदार नीति के कारण अनेक राजपूत राज्य नष्ट होने से बच गये।। 
4. साम्राज्य में शान्ति और व्यवस्था स्थापित हो जाने के कारण साहित्य, कला आदि सभी क्षेत्रों में उन्नति हुई। व्यापार वाणिज्य में बहुत विकास हुआ और देश की आर्थिक दशा बहुत सुधर गई। 
5. राजपूतों के सहयोग से अकबर अपने विरोधी अमीर सरदारों पर अंकुश रखने - और उनकी विद्रोहात्मक गतिविधियों का दमन करने में सफल हुआ।
6. राजपूत नीति से अकबर को एक लाभ यह हुआ कि बिना किसी परेशानी व खर्च
के राजपूतों की विशाल एवं शक्तिशाली सेना उसके अधीन हो गयी, जिसका उसने समय-समय पर लाभ लिया। इस नीति के परिणामस्वरूप अनेक राजपूत राजाओं की अपनी योग्यता का प्रदर्शन करने का उचित अवसर मिला। 
8. राजपूतों द्वारा मुगलों का आधिपत्य स्वीकार कर लेने से राजपूतों की प्रतिष्ठा धूल धूसरित हो गयी।


Q. 10. सल्तनत काल के सामाजिक जीवन पर प्रकाश डालिए। 
उत्तर ;- सल्तनत काल में भारतीय समाज दो वर्गों में विभक्त था-एक वर्ग शासक था और सरा शासित वर्ग था। मुस्लिम वर्ग, हिन्दू वर्ग की पूर्ण उपेक्षा करता था और सरकार भी हिन्दुओं की पक्ष न लेती थी और उनकी सुख-सुविधाओं की ओर कोई ध्यान नहीं देती थी।
1.जाति प्रथा- मुसलमानों के समय ही इस युग में हिन्दुओं में जाति के सम्बन्ध में संकीर्णता आ गई। सल्तनत काल में जाति-व्यवस्था का स्वरूप आधुनिक समय के समान हो गया। वंश-परम्परा के अनुसार व्यक्तियों का व्यवसाय निश्चित होने लगा था। समाज में खानपान, धार्मिक विश्वास, भौगोलिक स्थिति, विवाह तथा संस्कार आदि में भिन्नता होने के कारण एक वर्ग के अन्तर्गत अनेक वर्ग निर्मित होने लगे। वर्ण संस्कारों की नवीन जातियों का प्रादुर्भाव हआ। इसके परिणामस्वरूप 'गोत्र का उल्लेख बन्द हो गया और ब्राह्मण लोग मिश्रा, शर्मा, शक्ला तथा दीक्षित आदि उपनामों से अपने को विभूषित करने लगे। इसके अन्तर्गत भी अनेक जातियाँ उप-जातियाँ बन गयी और उनमें खान-पान तथा विवाह आदि में विभिन्नता स्थापित हो गई। इस प्रकार इस युग में हिन्दू जाति-व्यवस्था काफी जटिल हो गई।

2.हिन्दुओं की स्थिति-सल्तनत काल में देश की अधिकांश जनता हिन्द थी और देश की अधिकांश भूमि पर इन्हीं का अधिकार था। उनमें से कुछ हिन्दू आर्थिक दृष्टि से अधिक सम्पन्न थे। ऐसे लोगों को 'बरनी' ने चौधरी, खुत तथा मुकद्दम आदि नामें से पुकारा है। राज्य का प्रमुख व्यापार भी इन्हीं के हाथो में था। लेकिन सल्तनत काल के प्रारम्भिक वर्षों में इनकी दशा कुछ अच्छी रही और बाद में इनकी स्थिति में गिरावट आने लगी।

3.स्त्रियों की दशा- सल्तनत युग में प्राचीन युग की अपेक्षा स्त्रियों की दशा अधिक शोचनीय हो गयी थी। परन्तु अभी तक स्त्रियों को समाज में एक विशेष स्थान प्राप्त था। हिन्दू समाज में स्त्रियाँ गृहस्वामिनी समझी जाती थीं और प्रत्येक धार्मिक कार्य में उनकी उपस्थिति आवश्यक समझी जाती थी। स्त्री-शिक्षा की भी व्यवस्था थी क्योंकि इस युग में अनेक विदुषी स्त्रियों के उदाहरण मिलते हैं। उदाहरणार्थ मण्डन मिश्र की स्त्री ने शंकराचार्य को शास्त्रार्थ में पराजित किया था और राजशेखर' की स्त्री 'अवन्ति सुन्दरी ने प्राकृत काव्य के एक शब्दकोष की रचना की थी।
इस युग में उच्च परिवारों की स्त्रियाँ बुद्धिमती एवं गुणवती होती थीं। देवल रानी, रूपमती, पदमावती और मीराबाई आदि हिन्दू स्त्रियाँ संगीत, नृत्य कला एवं साहित्य की विशेष प्रेमी माराबाई ने कृष्ण भक्ति के सुन्दर पदों की रचना की थी। इस युग की स्त्रियाँ चित्रकला, मृत्यकला तथा संगीत कला में दक्ष थीं।
मुस्लिम समाज में स्त्रियों की दशा बड़ी शोचनीय थीं। उन्हें समाज में विशेष सम्मान तष्ठा की दृष्टि से नहीं देखा जाता था। मुस्लिम समाज में पर्दे की कठोर प्रथा थी। फिरोज लक ने स्त्रियों की स्वतन्त्रता पर अनेक प्रतिबन्ध लगा दिये थे। फिर भी हिन्दू स्त्रियों की अपेक्षा मुस्लिम स्त्रियों को अधिक सुविधायें प्राप्त थीं। उनमें विधवा-विवाह करने का अधिकार था और तलाक-प्रथा भी प्रचलित थी। मुसलमानों में सती प्रथा नहीं थी. स्त्रियों को पिता की सम्पत्ति का भाग मिलता था। मुस्लिम स्त्रियाँ घर पर ही शिक्षा ग्रहण करती थीं। कुछ स्त्रियाँ विदुषी भी थीं। 'रजिया सुल्तान' ने तो कुछ वर्षों तक दिल्ली में शासन भी किया था।
4. सामाजिक प्रथायें- सल्तनतकालीन हिन्दू समाज में अनेक कुप्रथायें प्रचलित थीं, यथा
(i) बहुविवाह-प्रथा- हिन्दू वर्ग में उच्च परिवारों में बहुविवाह की प्रथा प्रचलित थी। स्त्रियों को भोग-विलास की वस्तु समझा जाता था। अनेक स्त्रियाँ होने के कारण उनमें पारस्परिक ईर्ष्या एवं द्वेष की भावना उत्पन्न हो जाती थी, जिससे पारिवारिक जीवन कष्टप्रद हो जाता था। स्त्रियों की प्रतिष्ठा में काफी गिरावट आ गई थी। प्राय: घर की दासी अपने रूप-यौवन के कारण गृहस्वामी के हृदय पर विजय प्राप्त कर लेती थीं और गृह की वास्तविक स्वामिनी बन जाती थी।
विधवाओं का जीवन बड़ा दुखमय था। वे सन्यासियों के समान जीवन व्यतीत करती थीं। उन्हें पुनर्विवाह करने की अनुमति नहीं थी। इस युग में पर्दे की प्रथा कठोर होती थी और निम्न वर्गों में सामान्यतः बहुविवाह-प्रथा प्रचलित हो गई थीं।

(ii) सती-प्रथा- सल्तनत युग में सती-प्रथा का विशेष प्रचार था, परन्तु यह प्रथा अधिकांशतः राजपूतों में प्रचलित थी। इस युग में स्त्रियाँ अपने पति की मृत्यु के बाद आग में जल जाती थीं। जो स्त्रियाँ अपने पति की मृतक शरीर के साथ जलती थी 'सहमरण' करने वाली होती थी। किसी-किसी राजा की एक से अधिक स्त्रियाँ होती थीं। ऐसी स्थिति में पटरानी राजा के मृतक शरीर के साथ जलती थी और अन्य स्त्रियाँ पृथक् अग्नि कुण्ड में जलकर भस्म हो जाती थीं।

(iii) जौहर प्रथा- इस युग में राजपूत वर्ग में विशेष 'जौहर-प्रथा' प्रचलित थी। जब कभी राजपूत स्त्रियाँ यह समझ जाती थीं कि उनके पतियों को युद्ध में विजय प्राप्त नहीं होगी तो वह अपने सतीत्व की रक्षा के लिए अग्नि कुण्ड में जलकर भस्म हो जाती थीं। यह जौहरप्रथा' थी।
सल्तनत युग में जौहर के अनेक उदाहरण मिलते हैं। रणथम्भौर के वीर राजपूत राजा हम्मीर देव ने अलाउद्दीन खिलजी की सेना का काफी दिनों तक सामना किया और जब उसके बचने की कोई आशा न रही तो उसकी रानियों में जौहर कर लिया।

5.खान-पान- सल्तनत युग में अधिकांश हिन्दू निरामिष भोजन करते थे। हिन्दुओं में जीव-हत्या करना घोर पाप समझा जाता था, परन्तु क्षत्रिय लोग माँस, मछली आदि का प्रयोग करने लगे थे। भोजन बनाने की कला की ओर विशेष ध्यान दिया जाता था। उत्सवों और त्यौहारी पर घरों में रुचिकर तथा नाना प्रकार के व्यंजन बनाये जाते थे। दूध, घी, मक्खन बहुतायत से प्रयुक्त किया जाता था। मदिरा तथा अन्य मादक द्रव्यों का सेवन तेजी के साथ बढ़ रहा था। चरित्रहीन और विलासी व्यक्ति सुरा-सुन्दरी में लिप्त रहते थे। मुसलमानों में मांस खान का विशेष प्रचलन था परन्तु सूफी मत के अनुयायी माँस तथा मदिरा का प्रयोग नहीं करते था 

6.वस्त्राभूषण- इस युग में नाना प्रकार के वस्त्रों का प्रचलन था। लोग ऊनी, सूती आर शामी सभी प्रकार के वस्त्रों को धारण करते थे। मुस्लिम वर्ग के उच्च परिवारों तथा राजपूत यहाँ विभिन्न रंगों के रेशमी वस्त्रों का प्रयोग होता था। वस्त्रों पर सुन्दर कढ़ाई और जरा काम भी होता था। साधारण जनता सूती किन्तु सजावट युक्त वस्त्र धारण करती थी।

Q. 11.ताजमहल पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।  
उत्तर ;- ताजमहल भारतीय शहर आगरा में यमुना नदी के दक्षिण तट पर एक हाथीदांत-सफेद संगमरमर का मकबरा है। इसे 1632 में मुगल सम्राट शाहजहां (1628 से 1658 तक शासन किया गया) द्वारा अपनी पसंदीदा पत्नी मुमताज महल की मकबरे के लिए शुरू किया गया था। मकबरा 17-हेक्टेयर (42 एकड़) परिसर का केंद्रबिंदु है, जिसमें एक मस्जिद और एक गेस्ट हाउस शामिल है, और इसे तीन तरफ एक अनियंत्रित दीवार से घिरा औपचारिक उद्यान में स्थापित किया गया है।

मकबरे का निर्माण अनिवार्य रूप से 1643 में पूरा किया गया था लेकिन परियोजना के अन्य चरणों में काम 10 वर्षों तक जारी रहा। माना जाता है कि ताजमहल कॉम्प्लेक्स 1653 में लगभग 32 मिलियन रूपये होने के अनुमानित लागत पर पूरी तरह से पूरा हो चुका है, जो 2015 में लगभग 52.8 बिलियन रुपये (यूएस $ 827 मिलियन) होगा। निर्माण परियोजना ने सम्राट, उस्ताद अहमद लाहौरी के लिए अदालत के वास्तुकार के नेतृत्व में आर्किटेक्ट्स के बोर्ड के मार्गदर्शन में लगभग 20,000 कारीगरों को रोजगार दिया।

ताजमहल को 1 9 83 में यूनेस्को की विश्व विरासत स्थल के रूप में नामित किया गया था, “भारत में मुस्लिम कला का गहना और दुनिया की विरासत की सार्वभौमिक प्रशंसनीय कृतियों में से एक”। इसे कई लोगों ने मुगल वास्तुकला का सर्वोत्तम उदाहरण और भारत के समृद्ध इतिहास का प्रतीक माना है। ताजमहल सालाना 7-8 मिलियन आगंतुकों को आकर्षित करता है। 2007 में, इसे विश्व के नए 7 आश्चर्य (2000-2007) पहल का विजेता घोषित किया गया था।

मूल - आधार

इसका मूल-आधार एक विशाल बहु-कक्षीय संरचना है। यह प्रधान कक्ष घनाकार है, जिसका प्रत्येक किनारा 55 मीटर है (देखें: तल मानचित्र, दांये)। लम्बे किनारों पर एक भारी-भरकम पिश्ताक, या मेहराबाकार छत वाले कक्ष द्वार हैं। यह ऊपर बने मेहराब वाले छज्जे से सम्मिलित है।

मुख्य मेहराब

मुख्य मेहराब के दोनों ओर,एक के ऊपर दूसरा शैलीमें, दोनों ओर दो-दो अतिरिक्त पिश्ताक़ बने हैं। इसी शैली में, कक्ष के चारों किनारों पर दो-दो पिश्ताक (एक के ऊपर दूसरा) बने हैं। यह रचना इमारत के प्रत्येक ओर पूर्णतया सममितीय है, जो कि इस इमारत को वर्ग के बजाय अष्टकोण बनाती है, परंतु कोने के चारों भुजाएं बाकी चार किनारों से काफी छोटी होने के कारण, इसे वर्गाकार कहना ही उचित होगा। मकबरे के चारों ओर चार मीनारें मूल आधार चौकी के चारों कोनों में, इमारत के दृश्य को एक चौखटे में बांधती प्रतीत होती हैं। मुख्य कक्ष में मुमताज महल एवं शाहजहाँ की नकली कब्रें हैं। ये खूब अलंकृत हैं, एवं इनकी असल निचले तल पर स्थित है।


गुम्बद

मकबरे पर सर्वोच्च शोभायमान संगमर्मर का गुम्बद (देखें बांये), इसका सर्वाधिक शानदार भाग है। इसकी ऊँचाई लगभग इमारत के आधार के बराबर, 35 मीटर है और यह एक 7 मीटर ऊँचे बेलनाकार आधार पर स्थित है। यह अपने आकारानुसार प्रायः प्याज-आकार (अमरूद आकार भी कहा जाता है) का गुम्बद भी कहलाता है। इसका शिखर एक उलटे रखे कमल से अलंकृत है। यह गुम्बद के किनारों को शिखर पर सम्मिलन देता है।

छतरियाँ

गुम्बद के आकार को इसके चार किनारों पर स्थित चार छोटी गुम्बदाकारी छतरियों (देखें दायें) से और बल मिलता है। छतरियों के गुम्बद, मुख्य गुम्बद के आकार की प्रतिलिपियाँ ही हैं, केवल नाप का फर्क है। इनके स्तम्भाकार आधार, छत पर आंतरिक प्रकाश की व्यवस्था हेतु खुले हैं। संगमर्मर के ऊँचे सुसज्जित गुलदस्ते, गुम्बद की ऊँचाई को और बल देते हैं। मुख्य गुम्बद के साथ-साथ ही छतरियों एवं गुलदस्तों पर भी कमलाकार शिखर शोभा देता है। गुम्बद एवं छतरियों के शिखर पर परंपरागत फारसी एवं हिंदू वास्तु कला का प्रसिद्ध घटक एक धात्विक कलश किरीटरूप में शोभायमान है।

मीनारे

डबते सूर्य के संग ताज का अद्वितीय दृश्य

मुख्य आधार के चारो कोनों पर चार विशाल मीनारें (देखें बायें) स्थित हैं। यह प्रत्येक 40 मीटर ऊँची है। यह मीनारें ताजमहल की बनावट की सममितीय प्रवृत्ति दर्शित करतीं हैं। यह मीनारें मस्जिद में अजा़न देने हेतु बनाई जाने वाली मीनारों के समान ही बनाईं गईं हैं। प्रत्येक मीनार दो-दो छज्जों द्वारा तीन समान भागों में बंटी है। मीनार के ऊपर अंतिम छज्जा है, जिस पर मुख्य इमारत के समान ही छतरी बनी हैं। इन पर वही कमलाकार आकृति एवं किरीट कलश भी हैं। इन मीनारों में एक खास बात है, यह चारों बाहर की ओर हलकी सी झुकी हुईं हैं, जिससे कि कभी गिरने की स्थिति में, यह बाहर की ओर ही गिरें, एवं मुख्य इमारत को कोई क्षति न पहुँच सके।

बाहरी अलंकरण

ताजमहल का बाहरी अलंकरण, मुगल वास्तुकला का उत्कृष्टतम उदाहरण हैं। जैसे ही सतह का क्षेत्रफल बदलता है, बडे़ पिश्ताक का क्षेत्र छोटे से अधिक होता है और उसका अलंकरण भी इसी अनुपात में बदलता है। अलंकरण घटक रोगन या गचकारी से अथवा नक्काशी एवं रत्न जड़ कर निर्मित हैं। इस्लाम के मानवतारोपी आकृति के प्रतिबन्ध का पूर्ण पालन किया है। अलंकरण को केवल सुलेखन, निराकार, ज्यामितीय या पादप रूपांकन से ही किया गया है।

ताजमहल में पाई जाने वाले सुलेखन फ्लोरिड थुलुठ लिपि के हैं। ये फारसी लिपिक अमानत खां द्वारा सृजित हैं। यह सुलेख जैस्प‍र को श्वेत संगमर्मर के फलकों में जड़ कर किया गया है। संगमर्मर के सेनोटैफ पर किया गया कार्य अतीव नाजु़क, कोमल एवं महीन है। ऊँचाई का ध्यान रखा गया है। ऊँचे फलकों पर उसी अनुपात में बडा़ लेखन किया गया है, जिससे कि नीचे से देखने पर टेढा़पन ना प्रतीत हो। पूरे क्षेत्र में कु़रान की आयतें, अलंकरण हेतु प्रयोग हुईं हैं। हाल ही में हुए शोधों से ज्ञात हुआ है, कि अमानत खाँ ने ही उन आयतों का चुनाव भी किया था।


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